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विकासनगर उत्तराखंड के टोंस घाटी क्षेत्र में बसे हनोल श्री महासू देवता मंदिर की प्रबंधन समिति द्वारा लिए गए ताज़ा फैसलों को लेकर स्थानीय क्षेत्र में असंतोष की लहर दौड़ गई है। मंदिर समिति द्वारा अपने विस्तार को कुछ सीमित क्षेत्रों तक सीमित करने और आजीवन सदस्यता शुल्क को ₹1 लाख तय करने के निर्णय का विरोध करते हुए लोक पंचायत जौनसार-बावर संगठन ने इसे परंपरा और लोक आस्था के विरुद्ध बताया है।
लोक पंचायत ने इस मसले को लेकर जिला प्रशासन देहरादून को एक ज्ञापन सौंपा, जिसमें साफ तौर पर मांग की गई है कि मंदिर समिति के गठन और उसके नियमों में पारंपरिक ढांचे का पालन किया जाए। संगठन का कहना है कि समिति का यह नया ढांचा न केवल स्थानीय परंपराओं का उल्लंघन करता है, बल्कि सैकड़ों वर्षों से चली आ रही आस्था पर भी कुठाराघात ह
मंदिर समिति का सीमित विस्तार बना विवाद की जड़
ज्ञापन के अनुसार, वर्तमान में मंदिर समिति का जो विस्तार किया गया है, वह केवल बावर क्षेत्र की 11 खतों और बंगाण क्षेत्र की तीन पट्टियों तक सीमित है। जबकि महासू देवता की मान्यता और भक्ति का दायरा इससे कहीं अधिक व्यापक है। लोक पंचायत का कहना है कि महासू देवता की लोक मान्यता केवल बावर और बंगाण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे जौनसार-बावर क्षेत्र की 39 खतों, साथ ही फतेह पर्वत, रंवाई-जौनपुर, यमुना घाटी, और हिमाचल प्रदेश के सिरमौर और शिमला जिलों तक फैली हुई है। ऐसे में समिति का केवल कुछ गिने-चुने क्षेत्रों को प्राथमिकता देना न केवल असंतुलन पैदा करता है, बल्कि समस्त क्षेत्रीय समाज के विश्वास को ठेस पहुँचाता है।
आजीवन सदस्यता शुल्क ₹1 लाख: परंपरा या व्यवसाय?
लोक पंचायत द्वारा सबसे अधिक विरोध ₹1 लाख के आजीवन सदस्यता शुल्क पर जताया गया है। संगठन ने इस शुल्क को ‘आर्थिक शोषण’ बताते हुए इसे देवता की सेवा को व्यापारिक दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करार दिया है। ज्ञापन में कहा गया है कि मंदिर का उद्देश्य श्रद्धालुओं से धन वसूलना नहीं, बल्कि उन्हें सेवा और समर्पण के साथ देवता से जोड़ना होना चाहिए। ₹1 लाख की राशि आम श्रद्धालु के लिए बहुत बड़ी है और यह शुल्क लोगों को मंदिर की व्यवस्थाओं से दूर करने का कार्य करेगा। इसके स्थान पर लोक पंचायत ने सुझाव दिया है कि:
- आजीवन सदस्यता शुल्क अधिकतम ₹1,100 किया जाए।
- सामान्य सदस्यता शुल्क ₹100 हो, जिसकी वैधता तीन वर्षों तक रहे।
मंदिर समिति के गठन में पारंपरिक हकों की अनदेखी
लोक पंचायत ने स्पष्ट किया कि मंदिर की परंपरा में केवल कुछ चुने हुए क्षेत्र नहीं, बल्कि हक-हकूकधारी समुदायों की भी अहम भूमिका रही है। पारंपरिक रूप से समिति में जिन लोगों को शामिल किया जाता रहा है, उनमें पुजारी, बजीर, राजगुरु, ठाणी-भंडारी, बाजगी, पिशनारे और सदर स्याणा शामिल हैं। यह वर्ग मंदिर की सेवा और संचालन का अभिन्न अंग रहा है, और यदि समिति के विस्तार में इन्हें नजरअंदाज़ किया गया तो यह लोक आस्था के मूल ढांचे को तोड़ने जैसा होगा। लोक पंचायत की मांग है कि हर खत से कम से कम एक प्रतिनिधि समिति में शामिल हो, ताकि सभी क्षेत्र और जातीय प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके।
समिति का उद्देश्य श्रद्धालुओं को जोड़ना हो, तोड़ना नहीं
लोक पंचायत ने अपने ज्ञापन में इस बात पर विशेष बल दिया कि मंदिर समिति का मुख्य उद्देश्य श्रद्धालुओं को जोड़ना और सेवा भाव से जोड़ना होना चाहिए। यदि समिति का ढांचा और सदस्यता शुल्क ऐसा बना दिया जाए कि आम लोग उससे दूर हो जाएं, तो इसका प्रभाव सीधा देवता की लोक प्रतिष्ठा और मंदिर की आंतरिक संरचना पर पड़ेगा। ज्ञापन में चेतावनी दी गई है कि यदि समिति ने इन मुद्दों पर पुनर्विचार नहीं किया तो क्षेत्रीय स्तर पर बड़ा आंदोलन खड़ा किया जा सकता है। मंदिर समिति को चाहिए कि वह जनता की भावना को समझे और अपने निर्णयों को लोक हित और परंपरा के अनुरूप बनाए। ज्ञापन सौंपने वालों में कौन-कौन शामिल रहे
लोक पंचायत की ओर से ज्ञापन देने वालों में सतपाल चौहान, प्रदीप वर्मा, नितिन तोमर, अतुल शर्मा, गंभीर सिंह, और सत्येंद्र जैसे प्रमुख नाम शामिल हैं। ये सभी लंबे समय से क्षेत्रीय मुद्दों पर सक्रिय रहे हैं और जन भावनाओं को प्रशासन तक पहुँचाने का कार्य करते हैं।
मंदिर प्रशासन को संतुलन साधना होगा
हनोल का महासू मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि जौनसार-बावर की सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक है। यहाँ की हर परंपरा, हर रिवाज और हर नियम जन भावनाओं से जुड़ा हुआ है। यदि समिति ने इस तथ्य को नहीं समझा और निर्णयों को बिना संवाद के लागू किया, तो इसका दूरगामी परिणाम हो सकता है। इस तरह के बड़े धार्मिक संस्थान जब परंपरा से हटकर निर्णय लेते हैं, तो यह समाज में भ्रम, अविश्वास और असंतुलन को जन्म देता है। यदि समिति सच में भक्तों के हित में कार्य करना चाहती है, तो उसे तुरंत बैठकर इन सुझावों और मांगों पर गंभीरता से विचार करना होगा।
लोक पंचायत का यह ज्ञापन कोई सामान्य विरोध नहीं है, बल्कि एक संस्कृति को बचाने का प्रयास है। मंदिर केवल पूजा का स्थान नहीं होता, वह एक सामाजिक संस्थान भी होता है — जहाँ आस्था, परंपरा और सेवा का संगम होता है। यदि समिति अपने फ़ैसलों को संशोधित करती है, तो यह न केवल जनता का भरोसा बहाल करेगा, बल्कि मंदिर की प्रतिष्ठा को भी नई ऊँचाइयाँ देगा। वरना, आने वाले समय में यह निर्णय विवाद और सामाजिक विभाजन की वजह बन सकता है
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